भारतीय समाज औद्योगिक समाज की मुख्य विशेषताओं से युक्त तो है ही साथ ही आत्म निर्भर भारत बनने की ओर उन्मुख है। यह भी सत्य है कि वैश्विकरण, उदारीकरण और निजीकरण ने जहाँ उद्योगों के कार्य करने के तरीकों को बदला है वहीं दूसरी ओर भारतीय सामाजिक संरचना, अंतर-वैयक्तिक संबंधों, मनोवृतियों तथा परिवर्तनकारी प्रवृत्तियों का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है जो आज औद्योगिक संबंधों से अछूता हो। भारतीय समाज पहले से कहीं अधिक जटिल, औपचारिक, आधुनिक और परिवर्तनशील है।
प्रस्तुत पुस्तक भारत मे उद्योग, औद्योगिक संगठन की नवीन प्रवृत्ति, उत्पादन प्रक्रियाओं, औद्योगिक विवाद, श्रमिक संघ, उसके क्रिया-कलाप और वर्तमान प्रवृत्तियों, बाल श्रम और श्रम कल्याण को समझने का प्रयास है।
यह पुस्तक समाजशास्त्र, प्रबंधन, श्रम कल्याण, प्रशासकों, नीति-निर्माताओं और शोधार्थियों तथा उद्योग और समाज मे रूचि रखने वालों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
Contents
1औद्योगिक समाजशास्त्र: अर्थ, विषय-वस्तु, क्षेत्र एवं महत्व
2औद्योगिक समाजशास्त्र का उद्भव एवं विकास
3सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य
4औद्योगिक संगठन तथा उत्पादन प्रक्रियाएं
5समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में श्रमिक विशेषताएं
6औद्योगिक कार्य: संगठनात्मक प्रक्रियाएं
7श्रमिक, पर्यवेक्षक एवं प्रबन्ध-सम्बन्ध
8श्रमिक एवं औद्योगिक सम्बन्धों पर समग्र दृष्टिपात
9औद्योगिक विवाद तथा समझौता प्रणाली (मध्यस्थता)
10सामूहिक सौदेबाजी
11श्रमिक संघ
12प्रबन्ध में श्रमिकों की सहभागिता
13सामुदायिक अथवा श्रम कल्याण
14अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन
15कारखाना अधिनियम, 1948
About the Author / Editor
मनोज छापड़िया, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में लेक्चरर एवं इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय (केंद्रीय विश्वविद्यालय), मध्य प्रदेश में एसोसिएट प्रोेफेसर के रूप में कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में डॉ. छापड़िया, का. सु. साकेत स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय, अयोध्या के समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। आप सोशियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ उत्तर प्रदेश के जनरल सेक्रेटरी भी हैं और भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में नीति निर्माण में अनेक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं।
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